Swatantrya Veer Savarkar Review – पर्दे पर दिख रहा है। रणदीप हुड्डा की मेहनत का असर, डंके की चोट पर बताया हू किल्ड हिज स्टोरी।
अभिनेता से निर्माता-निर्देशक-लेखक बने रणदीप हुड्डा की फिल्म ‘स्वातंत्र्यवीर सावरकर’ इतिहास के उस पन्ने को पूरी तरह से लिखने का एक प्रयास है, जो इसे बनाने वालों के अनुसार एक योजना के तहत ‘मार’ दिए गए। “हू किल्ड हिज स्टोरी” टैग के साथ सिनेमाघरों में रिलीज हुई यह फिल्म भारत के स्वतंत्रता संग्राम के नायकों में से एक विनायक दामोदर सावरकर के जीवन और उनकी सशस्त्र क्रांति की नीति का खुलासा करती है। फिल्म में सावरकर का किरदार रणदीप हुडा ने निभाया है। फिल्म में भारत को ब्रिटिश गुलामी से मुक्त कराने के लिए अपने संगठन को जारी रखने और मजबूत करने की सावरकर की विचारधारा का वर्णन किया गया है। यदि वह सफल हो गये होते तो देश को बहुत पहले ही आजादी मिल गयी होती।
फिल्म “स्वातंत्र्यवीर सावरकर” की कहानी प्लेग महामारी से शुरू होती है। सावरकर के पिता प्लेग महामारी से पीड़ित थे। ब्रिटिश पुलिस अधिकारी सावरकर के पिता सहित प्लेग महामारी से संक्रमित तमाम लोगों को जिंदा जला देते है सावरकर को बचपन से ही ब्रिटिश शासन से नफरत थी। जब वे बड़े हुए तो देश की आजादी के लिए अभिनव भारत सोसाइटी का गठन किया। और इस संगठन में देश के उन युवाओं को शामिल करते हैं जो भारत को अंग्रेजों की गुलामी से आज़ाद कराना चाहते हैं। वह कानून की पढ़ाई करने के लिए लंदन गए और वहां से उन्होंने अपने संगठन को मजबूत करने की कोशिश की और इसके कारण उन्हें कालापानी की सजा सुनाई गई। काला पानी की सजा पूरी होना के बाद सावरकर को महात्मा गांधी की हत्या की साजिश में शामिल होने के आरोप में गिरफ्तार कर लिया जाता है। परन्तु सबूतों के अभाव में उन्हें रिहा कर दिया गया।

फिल्म ‘स्वातंत्र्यवीर सावरकर’ में, जो सावरकर के जीवन के अनछुए पहलुओं को दिखाने का प्रयास है, इस बात पर जोर दिया गया है कि वह गांधी की अहिंसक विचारधारा से प्रभावित नहीं थे। वह गांधी का सम्मान करते हैं लेकिन उनके विचारों का विरोध करते है। इस फिल्म में सुभाष चंद्र बोस और सावरकर की विचारधारा के अलावा यह भी बताया गया कि हिंदू राष्ट्र के राजनीतिक विचार के विकास का महानायक सावरकर को जाता है। उत्कर्ष नैथानी के साथ मिलकर रणदीप हुडा ने फिल्म की कहानी लिखी है। जैसा कि हुडा ने इस फिल्म की समीक्षा की, उनका प्रभाव पूरी फिल्म में देखा जा सकता है। लगभग तीन घंटे की इस फिल्म में, रणदीप हुडा ने सावरकर के जीवन के उस हिस्से को प्रकाश में लाया, जो जनता के लिए पूरी तरह से अनजान है। इस फिल्म के जरिए उन्होंने सवाल उठाया कि किसी कांग्रेसी नेता को कालापानी की सजा क्यों नहीं दी गई?
पहले फिल्म ‘स्वातंत्र्यवीर सावरकर‘ का निर्देशन महेश मांजरेकर कर रहे थे, लेकिन रणदीप हुडा से मतभेद के चलते जब महेश मांजरेकर ने यह फिल्म छोड़ दी तो इस फिल्म के निर्देशन की कमान खुद रणदीप हुडा ने संभाल ली। हालांकि बतौर निर्देशक यह रणदीप हुडा की पहली फिल्म है। लेकिन जिस तरह से उन्होंने इस बेहतरीन फिल्म को दिखाया वो काबिलेतारीफ है. कालापानी की सजा वाली फिल्म देखकर जहां रोंगटे खड़े हो जाते हैं वहीं फिल्म का इमोशनल सीन भी काफी अच्छा बन पड़ा है। इंटरवल से पहले फिल्म की रफ्तार थोड़ी धीमी है, परन्तु इंटरवल के बाद फिल्म अपनी पकड़ अच्छी बना लेती है और फिल्म के कई डायलॉग्स पर सिनेमाघरों में तालियां भी बजती है।
पूरी फिल्म रणदीप हुडा के कंधों पर टिकी है। फिल्म ‘स्वातंत्र्यवीर सावरकर’ में सावरकर की भूमिका के लिए उन्होंने जिस तरह खुद को ढाला वह बेहद प्रभावशाली था। वह जब भी स्क्रीन पर आते हैं एक अलग छाप छोड़ते है। उन्होंने सावरकर के करियर को पूरी तरह से पर्दे पर उतारा. हालाँकि अंकिता लोखंडे को फिल्म में सावरकर की पत्नी यशोदाबाई के रूप में छोटे पर्दे की भूमिका मिली, लेकिन उन्होंने अपनी भूमिका के लिए सही काम करने की कोशिश की। सावरकर के बड़े भाई के रूप में अमित सियाल का अभिनय बहुत ही अच्छा है। रणदीप हुड्डा खुद भी मानते है कि बाबा सावरकर की कहानी अपने आप में एक अलग फिल्म बन सकती हैं।
फिल्म ‘स्वातंत्र्यवीर सावरकर’ की सबसे कमजोर कड़ी इसके सहायक कलाकारों की कास्टिंग हैं। गांधी, नेहरू और जिन्ना का किरदार निभाने वाले अभिनेता गांधी, नेहरू और जिन्ना जैसे नहीं हैं। इस फिल्म के कास्टिंग डायरेक्टर पराग मेहता ने फिल्म के मुख्य किरदारों के अलावा बाकी कलाकारों की कास्टिंग ऐसी की है। जो उस टाइम के स्वतंत्रता सेनानियों से मेल नहीं खाता है। इस फ़िल्म की ज्यादातर शूटिंग सेट्स पर ही हुई है,और ये सेट वास्तविकता के तरह लगते है। इस संबंध में, सेट डिजाइनर नीलेश वाघ का काम श्रेय का पात्र है। फिल्म ‘स्वातंत्र्यवीर सावरकर’ में संगीत औसत है। देशभक्ति पर बनी इस फिल्म में कम से कम एक गाना तो ऐसा होना ही चाहिए जिसे सुनकर जोश आ जाए। लेकिन इस फिल्म में देशभक्ति वाला कोई गाना नहीं है। फिल्म का बैकग्राउंड म्यूजिक वास्तव में फिल्म के दृश्य को प्रभावी बनाने में काम आया। अरविंद कृष्णा की सिनेमैटोग्राफी अद्भुत है। उन्होंने उस दौर को पर्दे पर बखूबी दर्शाया। कमलेश कर्ण और राजेश पांडे की एडिटिंग इंटरवल से पहले थोड़ी सी सुस्त है, लेकिन इंटरवल के बाद उनकी यह कमी नहीं अखरती है। कॉस्ट्यूम डिजाइनर सचिन लोवलेकर ने उस काल खंड के हिसाब से कलाकारों की वेशभूषा अच्छे से डिजाइन की है।

